नवरात्र साधना में गायत्री अनुष्ठान
नवरात्र केवल व्रत ही नहीं एक अनुष्ठान है खुद से साक्षात्कार करने का शक्ति स्वरुपों को जानने समझने का और अपनी अंतर्चेतना के जागरण का जीवन की प्रतीक रुप में व्याख्या करते हुए वेदों में बीस हजार मंत्रों में सिर्फ गायत्री मंत्र को ही गुरु मंत्र माना गया है। सनातन और वैदिक परम्परा का यह सिरमौर मंत्र बना। रचना और अर्थ की दृष्टि से वेद मंत्रो में और भी भाव भरे मंत्र है। उनमें गायत्री को ही क्यों चुना गया आचार्य श्री रामशर्मा के शब्दों में ऋतंभरा प्रज्ञा को सिद्ध करने की क्षमता सिर्फ इसी मंत्र में थी। ऋतंभरा प्रज्ञा अर्थात बुद्धि की यह निर्मलता और पैनापन जिसे महर्षि पंतजलि ने योग सिद्धि की एकमात्र पहचान बताया है। योग के शिखर का प्रतिपादन करते हुए उन्होंने कहा है ऋतंभरा तस्य प्रज्ञा (सदा एक रस रहने वाली सात्विक बुद्धि) इस मंत्र को जाने अनजाने ऋषि मुनियों और प्राणवान लोगों ने 24 करोड़ बार पहले ही जय लिया था योग विद्या का सार सर्वस्व लिखते हुए पंतजलि ने अपने सूत्र ग्रन्थ में लिया है ऋंतभरा तस्य प्रज्ञा अर्थात् उसकी बुद्धि निर्मल हो जाती है। श्रृद्धा उत्साह बुद्धि की निर्मलता, एकाग्रता और उनसे उत्पन्न होने वाली निष्ठा ही ऋंतभरा प्रज्ञा कही जाती है। सिद्ध योगी के सिवा उस स्तर को कोई नहीं पा सकता। भारतीय धर्म के प्रतिनिधि ग्रन्थ चार वेदों और शास्त्रों में योग और उसके प्रतिपादन सत्य की व्याख्या में गायत्री मंत्र का उद्भव हुआ। इसे सात प्रमुख छंदों में प्रधान माना गया है। मंत्र में सविता देव की उपासना है। इसीलिये मंत्र को सावित्री भी कहते है माना जाता है कि गायत्री या सावित्री मंत्र के जप से परमपद मिलता है। ऋग्वेद के सात प्रसिद्ध छंदों में एक गायत्री छंद भी है। इन सात छंदों के नाम हैं गायत्री, उणिक, अनुष्टम, बृहति, विरट, त्रिष्टुप और जगती। गायत्री छंद में ही ज्यादा मंत्र रखे गये है।
नवरात्र साधनाओं में गायत्री अनुष्ठान पर क्यों जोर दिया गया है। इसका आसान सा उत्तर तो यह है कि नवरात्र साधनाओं के भजनीय मंत्रों में गायत्री मंत्र ही वैदिक है अर्थात् प्राचीन और सर्वाधिक लोकप्रिय ऋषि मुनियों द्वारा निर्दिष्ट पद्धति भी यही है। इसके अलावा संधिकाल को उपासना के तौर पर संध्यावंदन और गायत्री जय के रुप में इसे ही महत्व दिया गया है।