श्राद्ध पक्ष में गया का महत्व
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श्राद्ध पक्ष में जहां तर्पण का अपना महत्व है वहीं गया का महत्व सबसे बड़ा माना गया है। किम्बदन्ति है कि एक बार गया में भगवान रामचन्द्र सीता जी के साथ अपने पिता दशरथ का श्राद्ध करने के लिए गया गए था तथा श्राद्ध कर्म के लिए सामग्री लेने वह गए तो भगवान राम की अनुपस्थिति में तब तक दशरथ की आत्मा ने सीता जी से पिण्ड की मांग कर दी। गया धाम स्थित फल्गू नदी के किनारे अकेली बैठी सीता असमंजस में पड़ गयी उन्होंने फल्गू नदी, गाय, वट वृक्ष और केतकी के फूल को साक्षी मानकर पिण्डदान कर दिया। जब भगवान श्रीराम आये तो सीता जी ने श्रीराम को पूरी कहानी सुनाई पर भगवान को विश्वास नहीं हुआ। तब जिन्हें साक्षी मानकर पिण्डदान किया था उन सबको सामने लाया गया पंडा, फल्गू नदी, गाय और केतकी फूल ने झूठ बोल दिया पर अक्षय वट ने सत्सवादिता का परिचय देते हुए सीता माता की लाज रख दी। सीता माता ने फल्गू नदी को श्राप दे दिया कि तुम सदा सूखी रहोगी जब कि गाय को मैला खाने का श्राप दिया और केतकी के फूल को पितृ पूजन में निषेध का वट वृक्ष पर प्रसन्न होकर सीता माता ने उसे सदा दूसरों को छाया प्रदान करने व लम्बी आयु का वरदान दिया। कहते है तभी से फल्गू नदी हमेशा सूखी रहती है जबकि वटवृक्ष अब भी तीर्थ यात्रियों को छाया प्रदान करती है।
फल्गू तट पर स्थित सीताकुण्ड में बालू का पिण्डदान करने की क्रिया आज भी सम्पन्न होती है।
वर्ष भर गया में पिण्डदान किया जाता है पर पितरों के लिए पितृपक्ष में पिण्डदान का विशेष महत्व शास्त्रों में बताया गया है। कि गया तीर्थ में सर्वप्रथम फल्गू नदी में पिण्डदान किया जाता है। पुन: सीता कुण्ड में बालू से निर्मित पिण्डदान का विधान है फिर उसके बाद दशरथ कुण्ड पर पिण्डदान किया जाता है। उसके बाद विष्णु पाद मन्दिर में पिण्डदान किया जाता है। उसके बाद प्रेत शिला नामक स्थान पर पिण्डदान करने का विधान है। अंत में अक्षय वट पर पिण्डदान किया जाता है। मान्यता है कि अक्षय वट पर पिण्डदान करने के बाद श्राद्ध के समय पितरों के लिए पिण्डदान करने की आवश्यकता नहीं रहती।
